-देव श्रीमाली-
अच्छे मामू नही रहे …किसी के लिए वे अच्छे भाई तो किसी के लिए वे अच्छे मियां लेकिन नाम उनका खिज़र मुहम्मद कुरेशी था। वे पत्रकार थे..नेता थे..समाजसेवी थे …और भी बहुत कुछ थे लेकिन इन सबसे अलग भी उनकी पहचान थी वह थी एक जानदार इंसान की । उनकी संघर्ष , समर्पण और निष्ठा के चर्चे वर्षों से भिण्ड जिले में होते आये हैं अब वे फ़सानो में कहे जाएंगे।
एक सामान्य परिवार से निकले खिज़र भाई ने अपनी किशोरावस्था छोटे छोटे काम करके शुरू की । सीखने की उनकी आदत ने कभी उन्हें इलेक्ट्रिशियन बनांया तो कभी कुछ और लेकिन सात दशक पहले जब भिण्ड में यूं भी साक्षरता अंतिम प्राथमिकता पर थी उस पर भी वे मुस्लिम परिवार में जन्मे थे जिसमें गिने चुने बच्चे ही स्कूल का मुंह देखते थे , उन गिने चुने में से खिज़र कुरेशी भी थे। किशोर से युवा होते होते वे शहर के युवा तुर्क जमात का हिस्सा बन गए । सियासत में रुचि जागी तो सत्ता की जगह संघर्ष , सुविधा की जगह जलालत की राह पकड़ी । समाजवादी हुए । वे कभी छात्रसंघ चुनाव नही लड़े लेकिन इलेक्शन के समय उनका घर चुनाव की गोटियां बिछाने का अड्डा होता था । भूपत सिंह जादौन, श्याम सुन्दर यादव और खिज़र भाई की तिकड़ी अस्सी के दशक में सबकी जुबान पर होती थी । जन संघर्ष में थाना, कोतवाली और जेल तब राजनीति की डिग्री होती थी ,खिज़र भाई के पास इनकी तो मानो बड़ी फाइल थी ।
कट्टर धार्मिक होने के बावजूद सर्वधर्म सद्भाव में वे पारंगत थे । अपने युवा काल की सैकड़ों लड़कियों के लिए वे तब से अब तक वे अच्छे मामू बने हुए थे। यह उनकी लोकप्रियता का ही प्रतिफल था कि वे खालिस हिंदुओं के वार्ड से पार्षद चुने गए फिर भिण्ड नगर पालिका के उपाध्यक्ष । उस दौर में पत्रकारिता गौरव का विषय थी तो उन्होंने भी इसे चुना । अपना एक अखबार निकाला नाम रखा – निरोध। फिर आचरण सहित कई अखबारों से जुड़े ।
लेकिन सियासत उनकी रग – रग में बसी थी । वे शरूवाती दौर से ही डॉ गोविंद सिंह से जुड़े । वे जब कांग्रेस में आये तो खिज़र भाई भी कांग्रेस में आ गए । उन्होंने अंतिम सांस तक उनका साथ दिया। डॉ साहब ने भी उन पर भरोसा करने और सहयोग करने में कोई कसर नही छोड़ी । खिज़र भाई ने गांधी मार्केट की जिस हवेली में किराए से रहना शुरू किया उन्होंने उसी के हिस्से को खरीद लिया लेकिन उसे छोड़ा नही क्योंकि वही तो संघर्ष की साथी थी।
कुछ महीनों पहले एक वैवाहिक संमारोह में मेरी उंनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने अपनी बेगम और मेरी भाभी जी को मेरे जींवन से जुड़े किस्से सुनाए थे और कहा था- भिण्ड आज जिन चुनिंदा लोगो पर गर्व करता है उनमें से सबसे ऊपर देव है। इसके बाद उन्होंने अपनी हज यात्रा के संस्मरण सुनाए थे । वे लंबे समय से बीमारियों से जूझ रहे थे । बायपास हो चुकी थी लेकिन न हौंसला कम हुआ था न संघर्ष का माद्दा। निश्चित ही डॉ साहब की पराजय ने उन्हें झटका लगा होगा ।
28 दिसम्बर को उन्होंने यह फोटो फेसबुक पर शेयर किया था। वे दूसरी बार मक्का मदीना में उमरा पर थे । किसी को नही पता था कि खिज़र भाई जब पहली बार वहाँ सिर्फ जन्नत का रास्ता देखने गए थे लेकिन इस बार वे जन्नत जाने की जिद ठानकर ही गए है । वे सपत्नीक वहां गए थे । मुझे उनके इंतकाल की सूचना विकास शर्मा (आशु) ने दी। थोड़ी देर बाद उनके भांजे अतहर मुहम्मद ने बाद दी । उंसके ऐसा करने का आग्रह उनके बेटे ने किया जबकि मेरी उससे कोई पहचान नही है , जाहिर है घर पर उनके द्वारा की जाने वाली चर्चाओं में उसने मेरा नाम उनके मुंह से सुना होगा । अतहर ने बताया कि वहां उनकी तबियत बिगड़ी लेकिन उन्होंने कहाकि अब वे किसी अस्पताल नही जाने वाले । सही जगह पर हूँ और सही जगह ही जाऊंगा । वे अपने नसीब के उस गौरवशाली पल को छोड़ना नही चाहते थे जो मुस्लिम धर्म मे सबसे उत्कृष्ट माना जाता है । शायद उन्होंने जन्नत की राह देख रखी थी और वे 7 जनवरी को मौका लगते ही उस राह पर निकल गए।
मुझे इस बात का मलाल है कि हम अपने एक अग्रज, शुभ चिंतक और आइकोनिक इंसान की अंतिम यात्रा में शरीक नही हो सका क्योंकि उनकी पार्थिव देह पवित्र उमरा की माटी में ही मिलना तय हुआ जो किसी भी मुस्लिम धर्मावलंबी के लिए सबसे बड़ी ख्वाहिश होती है लेकिन मिलती करोड़ो में से किसी एक को जो खिज़र भाई को मिली । जानदार व्यक्ति की यह शानदार विदाई है ।
#अलविदा_खिज़र_भाई