विश्वास नहीं होता, प्रभात नामक सूर्य भरी दोपहरी में अस्त हो गया। हज़ारों बहिनों का भाई रक्षा बंधन से पहले ही चल बसा।लाखों नौज़वानों के दोस्त ने जाते हुए विदा भी नहीं ली।बहुतेरे अभी भी तुम्हारे दरवाज़े पर इस आस से खड़े हैं कि तुम्हारे एक फ़ोन से उनका बरसों से रुका काम हो जायेगा।
शून्य से शिखर पर पहुंचे
शून्य से शिखर तक पहुँचने वाले इस नायक के साथ इतनी यादों की ऊन का गोला उलझा है कि समझ ही नहीं आ रहा कि इसका सिरा कहाँ से पकडूँ।वो कंधे पर झोला लटका कर पैदल घूमता प्रभात।
“स्वदेश” से मिली लूना को लेकर सबसे पहले मुझे दिखाने मेरी दुकान पर आया प्रभात। रात 12 बजे के बाद रतन कॉलोनी स्थित मेरे निवास की डोर बेल बजा कर मेरी माँ से जो कहता था,माँ जी क्या रखा है रसोई में, जल्दी से लाओ, बहुत भूख लगी है” वाला या फटे कुर्ते और टूटी चप्पल से सारा शहर नाप आने वाला प्रभात। हज़ारों टेलीफ़ोन नंबर कंठस्थ रखने वाला प्रभात।
दीवाली पर लिखते थे हजारो पत्र
दीवाली पर अपने हाथ से लिखे हज़ारों पत्र भेज कर सबकी मंगल कामना करने वाला प्रभात।
देखते ही देखते मुखर्जी भवन लष्कर से भोपाल, रायपुर, नई दिल्ली के भाजपा कार्यालयों में अपनी मेहनत, मिलनसारिता, स्मरण शक्ति और सम्पर्क का लोहा मनवाने वाला प्रभात।
फिर राज्यसभा से लेकर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तक की ऊँचाई छूने वाला प्रभात, आज सब याद आ रहा है।
एक एक कर सबका उल्लेख करने का प्रयास करूंगा। अभी तो इतना ही कहूंगा तुम धोखा दे गए मेरे दोस्त। मेरे भाई। अभी उस दिन ही तो तुमने कहा था ” राज भाई साहब, घर आता हूं, आपसे बहुत सी बातें करना हैं।”
बिना आये, बिना मिले चले गए मेरे अनुज! तुम तो अचानक आ धमकते थे, अचानक चले भी जाओगे, ऐसा तो न सोचा था।
हार्दिक श्रद्धांजलि! आत्मीय स्मरण!! मेरे प्रभात जी!